
अंगूर, भारत का एक प्रमुख फल है। इसमें पोषक तत्वों की भरपूर मात्रा पायी जाती है। एक कप लाल या हरे अंगूर में 104 कैलोरी, 1.09 ग्राम प्रोटीन, 288 मिलीग्राम पोटेशियम, 0.054 मिलीग्राम आयरन और 3 माइक्रो ग्राम फोलेट पाया जाता है। अंगूर का उपयोग वाइन उत्पादन में भी किया जाता है। देश में अंगूर की खेती सभी क्षेत्रों में की जाती है। स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्य हितकर होने के कारण अंगूर की बागवानी का महत्व बढ़ रहा है। बाजार में मांग भी अंगूर की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है। अंगूर के अच्छे उत्पादन व दाम पाने के लिए वैज्ञानिक कृषि तकनीक को जानना आवश्यक है।
भारत में यूरोपीय अंगूर, जिसे वाइटिस भारतनिफेरा कहते हैं, की व्यावसायिक स्तर पर खेती होती है। यहाँ अंगूर का वर्ष 2020-21 में क्षेत्रफल 1,55,000 हैक्टर तथा उत्पादन 33,58,000 मिट्रिक टन दर्ज हुआ। पौष्टिक गुणों से समृद्ध और अनूठे स्वाद के कारण बढ़ती हुई मांग में अंगूर का वैज्ञानिक विधि से उत्पादन कैसे लिया जा सकता है लेख में विस्तार से वर्णन किया गया है। इससे किसानों को अंगूर का अधिक उत्पादन करने में सहयोग मिलेगा।
Table of Contents
जलवायु
अंगूर की बागवानी के लिये शीतोष्ण क्षेत्र अनुकूल है। सामान्य रूप से इसके लिये 10-29 डिग्री सें.ग्रे. के दैनिक औसत तापमान पर परिपक्वता तेजी से सम्पन्न होती है।
मृदा
अंगूर की खेती के लिए बलुई दोमट मृदा उपयुक्त है। कम उपजाऊ वाली भूमि को भी खाद व उर्वरक एवं सिंचाई का उचित प्रयोग करके दोमट मृदा की भांति अंगूर की खेती के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है *सहायक प्राध्यापक ( उद्यान विज्ञान विभाग ) ; इसके लिये मृदा का पी. एच. मान 6.5-7.5 आवश्यक है।
प्रमुख किस्में
अनाव-ए-शाही, बैंगलोर ब्लू, भोकरी, चीमा साहेबी, मस्कट हैम्बर्ग, परलेट, थॉम्पसन सीडलेस, अर्का – कंचन, पूसा सीडलेस, ब्यूटी सीडलेस, पूसा नवरंग व डिलाइट आदि ।
पौध प्रवर्धन
अंगूर का व्यावसायिक प्रवर्धन भारत में प्रायः कलम द्वारा करते हैं। आवश्यकतानुसार मूलवृन्त का लाभ प्राप्त करने हेतु कलम बंधन तथा चश्मा द्वारा भी इसका प्रवर्धन किया जा सकता है। इसके लिए मूलवृन्त के ऊपर मनपसंद किस्म को चिप चश्मा अथवा ग्रीन ग्राफ्टिंग द्वारा पौधे तैयार किये जा सकते हैं ।
पौध रोपण
अंगूर के पौधे लगाने का उचित समय दिसम्बर से जनवरी तक है। बरसात के मौसम में भी पौधों को लगाया जा सकता है पौध लगाने के 15-20 दिनों पूर्व 75×75 सें.मी. आकार के गड्ढे खोदकर उसमें गोबर की सड़ी खाद तथा धरातल की मिट्टी बराबर भाग में मिलाकर भर देनी चाहिए । प्रति गड्ढे में 200 ग्राम नीम की खली अथवा 40-50 ग्राम फॉलीडाल डस्ट मिलाने से दीमक के प्रकोप से सुरक्षा होती है।
पौध लगाने की दूरी, किस्म तथा पौधों की लगाने की विधि पर निर्भर करती है। अंगूर के पौधे लगाने की दूरी निम्न प्रकार रखते हैं:
हेड विधि | 2×2 मीटर |
ट्रेलिस विधि | 3×3 मीटर |
परगोला विधि | 4×3 मीटर |
इसमें परगोला विधि उत्तम मानी जाती है। एक साल पुरानी जड़ वाली कलम (पौधा) गड्ढों के बीचों-बीच लगा देते हैं और लगाने के तुरन्त बाद सिंचाई कर देते हैं।
खाद एवं उर्वरक
भारत में अंगूर में प्रति लता की दर से निम्नलिखित खाद एवं उर्वरक की मात्रा सुझायी जाती है:
अमोनियम सल्फेट | 250 ग्राम अथवा यूरिया 100 ग्राम |
सिंगल सुपर फॉस्फेट | 250 ग्राम |
सल्फेट ऑफ पोटाश | 400 ग्राम (दो बार में) |
गोबर की खाद | 40 किलोग्राम |
नीम की खली | 200 ग्राम |
उपरोक्त उर्वरकों और खादों के मिश्रण को लताओं की काट-छांट के बाद भूमि में मिलाकर हल्की सिंचाई की जानी चाहिए सल्फेट ऑफ पोटाश की आधी मात्रा इस मिश्रण के साथ और शेष मात्रा अप्रैल के मध्य में देने से अधिक लाभ होता है। सूक्ष्म तत्वों जैसे-जस्ता और बोरॉन की कमी होने की दशा में इनका प्रयोग भी आवश्यक होता है ।
पिस्सू भृंग
यह अंगूर के अलावा आम की मुलायम पत्तियों को भी क्षति पहुँचाता हुआ पाया गया है। इसके वयस्क व भृंगक दोनों ही क्षति पहुँचाते हैं। क्षतिग्रस्त कलियां एवं नई शाखाएं शीघ्र ही सूख जाती हैं।

नियंत्रण
वयस्क भृंगों को मिट्टी के तेल या कीटनाशी घोल से युक्त किसी ट्रे में हिलाकर नष्ट किया जा सकता है।
मार्च में क्लोरपायरीफास 20 ई0 सी0 का 2 मि.ली. प्रति ली0 के छिड़काव द्वारा इस कीट को मारा जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर छिड़काव को दोहराया जा सकता है।
सिंचाई
फलोत्पादन से पूर्व लताओं की कम अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। लताओं की काट-छांट के बाद आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। अंगूरों के पकने के 10-15 दिनों पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए। इससे फल सही ढंग से पक सकें और उनमें भरपूर मिठास आ सके | अक्तूबर से जनवरी तक पानी बिल्कुल नही लगाना चाहिए ताकि कलियाँ सुषुप्तावस्था में बनी रहें।
लताओं की सधाई
हेड विधिः कम बढ़वार वाली किस्मों यथा – ब्यूटी सीडलेस के लिए यह उपयुक्त विधि है। शुरू में सहारे के लिए मुख्य तने को बांस या लकडी के खम्भे से बांध देते मुख्य तने के सिरे पर 4-6 शाखायें चलने देते हैं। इनको 30-45 सें.मी. की लम्बाई में काट देते हैं। ये शाखायें मजबूत हो जाती हैं। इन शाखाओं पर ही अगले वर्षों में चलने वाली शाखायें निकलती रहती हैं।
ट्रेलिस विधिः इस विधि में पौधों की शाखाओं को जमीन के सामानान्तर एक से दूसरे खम्भे तक फैले हुए तारों पर साधते हैं। इसमें लताओं की सधाई आसान है। एक साल की पुरानी शाखाओं को मुख्य तने से 8-10 गांठों पर काट देते हैं। ये चार शाखा में पौधे का मुख्य ढांचा तैयार करती हैं जिन पर अगले वर्षों में फैलने वाली शाखायें निकली रहती हैं।
परगोला विधि: इसे पंडाल बावर आरबर या मण्डप विधि भी कहते हैं। दो मीटर ऊंचे लोहे के खम्भों के ऊपर बने ढांचे से आड़े और बेड़े रूप से तारों के खींचने से परगोला बनता है। खम्भों के बीच में 4×3 मीटर की दूरी पर अंगूर के पौधे लगाये जाते हैं। इस विधि में अंगूर की लता को दो मीटर की ऊंचाई तक बढ़ाकार ले जाते हैं जहां इसे तारों द्वारा बनी जाली पर फैलने दिया जाता है।
लताओं की काट-छांट
अंगूर में प्रूनिंग एक महत्वपूर्ण कार्य है । काट-छांट या प्रूनिंग का सही समय जनवरी है।एक वर्ष पुरानी स्वस्थ और सुडौल शाखाओं को 4-5 गांठें परलेट अथवा 9-12 गांठें पूसा सीडलेस थॉम्पसन सीडलेस पर फलने के लिए काटा जाता है। ये अगले वर्ष फलने के लिए काटे जाते हैं। काट-छांट से पहले यदि विभिन्न गांठों से कलियों के अन्दर फूलयुक्त कलियों का पता लगा लिया जाये तो प्रूनिंग के सही स्तर ( गांठों की संख्या) का पता चल जाता है जिस गांठ पर सबसे अधिक फूल वाली कलियां मिलें उसी गांठ पर काट-छांट करनी चाहिए।
कीट एवं रोग प्रबंधन
रसाद कीट
इस कीट के अर्भक और वयस्क दोनों ही क्षति पहुँचाते हैं। ये अपने खुरचने और चूसने के मुखांगों से पत्तियों की त्वचा को खुरचते हैं। इनमें से जो कोशिका द्रव निकलता है उसे ये अपने मुखांगों की सहायता से चूस लेते हैं। भारत में यह अंगूर का सबसे अधिक क्षति पहुँचाने वाला कीट है। क्षतिग्रस्त पत्तियों पर शुरु में सफेद धब्बे नजर आते हैं।
नियंत्रण
इसकी रोकथाम हेतु डायमेथोएट 30 ई.सी. 1.0 मिलीलीटर अथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. की 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से बनाये घोल का छिड़काव 10 दिनों के अंतराल पर दो बार करना चाहिए।
FAQ
अंगूर की खेती के लिए शुष्क और गर्म जलवायु सबसे उपयुक्त होती है। इसके लिए 15°C से 35°C तापमान आदर्श माना जाता है। बहुत अधिक वर्षा और आर्द्रता फंगल रोगों को बढ़ावा देती है, जिससे उत्पादन प्रभावित हो सकता है।
अंगूर की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली दोमट या बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है। मिट्टी का pH मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए।
भारत में उगाई जाने वाली प्रमुख अंगूर की किस्में इस प्रकार हैं:
टेबल वैरायटी: थॉम्पसन सीडलैस, पन्ना, अनाब-ए-शाही, सोनाका
वाइन वैरायटी: कैबर्नेट सौविन्यॉन, शिराज, शारदोने
रस व ड्राई फ्रूट वैरायटी: बैंगलोर ब्लू, किशमिश उत्पादन के लिए थॉम्पसन
अंगूर की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोग और कीट:
रोग: पाउडरी मिल्ड्यू, डाउनी मिल्ड्यू, एंथ्रेक्नोज
कीट: फली छेदक, चेपा, रेड स्पाइडर माइट
ड्रिप इरिगेशन प्रणाली अंगूर की खेती के लिए सबसे उपयुक्त होती है, जिससे पानी की बचत होती है और पौधों को उचित नमी मिलती रहती है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें अंगूर की खेती को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं चलाती हैं। किसान प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, और कृषि विभाग की अन्य योजनाओं के तहत अनुदान प्राप्त कर सकते हैं।
Join Whatsapp Channel | Click Here |
CB Home Page | ChandlaBoard |